Saturday, February 20, 2016

मैने आपको 41 मिनट सुना, मेरे 883 शब्दों को बस 5 मिनट पढ़ लीजिए.

रवीश जी, आपके ब्लॉग से प्रेरणा लेकर 2010 में ब्लॉगिंग शुरु की थी, आपकी ही वजह से सालों बाद आज वापस आ रही हूं

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चलिए मान लिया कन्हैया उमर खालिद सब सही हैं गद्दार वो हैं जिन्होने उन्हे गद्दार बनाकर इस देश पर थोप दिया लेकिन महोदय क्यों आप देश के टुकड़े टुकड़े करने का दावा करने वाले उन नारों पर कुछ नहीं बोलते, बल्कि ये बताते हैं कि जब कश्मीर में ये नारे दशकों से लगते रहे तो जेएनयू में क्यों नहीं लग सकते?

आप उन चैनलों से पूछते हैं कि अगर वीडियो फर्जी निकल गया तो क्या फिर से वह उतने ही घंटे चिल्ला चिल्लाकर प्रोग्राम चलाएँगे जितने कन्हैया के विरोध में चलाए गएमै आपसे पूछती हूँ रवीश जी कि हेडली की गवाही के बाद ये सच सामने आने के बाद कि इशरत जहाँ फिदायीन थी आपने कितने घंटे अपनी कुटिल मुस्कान और मध्यम आवाज़ में Prime Times किए?

या फिर आपके ही दोस्तों बरखा, सागरिका और राजदीप (जिनके नाम आप 41 मिनट में में कई बार दोहराते रहे) ने कितने घंटे के कार्यक्रम चलाए जब एक दशक तक मोदी को गुजरात दंगो का अपराधी बताने वाले आपलोगों के एजेंडे को धता बताते हुए न्यायपालिका ने उन्हे क्लीन चिट दे दिया? अर्णब और दीपक चौरसिया को नीचा दिखाकर खुद को महान साबित करने की जो कोशिश आपने कल की वो तब अपने इन दोस्तों के खिलाफ भी की होती जो SC के फैसले को भी दरनिकार करते हुए आजतक 2002 दंगों में मोदी को घसीटते रहते हैं. लेकिन आपने ऐसा नहीं किया तो क्या ये मान लिया जाना चाहिए कि आपकी भी मौन सहमति इसमें थी?

उमर खालिद को भागना नहीं चाहिए था आप ये कहते हैं लेकिन अपने इस 41 मिनट के भाषण में 2011 में यूपीए सरकार के तत्कालीन गृहराज्यमंत्री जितेंद्र सिंह का संसद में दिया गया वह लिखित जवाब क्यों नहीं दिखाते जिसमें यूपीए सरकार ने 23 संगठनों को ‘Naxal Outfit’ का दर्जा देते हुए उन पर प्रतिबंध लगा होने को माना था. क्यों नहीं बताते कि उन 23 संगठनों में आपके उमर खालिद का DSU भी था. आप कहीं भी ये ज़िक्र तक क्यों नहीं करते कि 3 फरवरी से 9 फरवरी के बीच उमर खालिद के फोन से किए और रिसीव किए गए 800 calls का क्या कारण था? वह 800 कॉल पाकिस्तान, कश्मीर, खाड़ी देशों और बांग्लादेश को क्यों किए गए?

आप भारत के संविधान की दुहाई देते हुए ये बताते हैं कि क्यों सेक्युलर होना गुनाह नहीं है, सबको बोलने का हक है. सहमत हूँ बिल्कुल नहीं है. लेकिन घुटने पर ज़रा ज़ोर डालिए और याद कीजिए संविधान के मुताबिक ‘Contempt of Court’ की वो परिभाषा जिसके दायरे में ‘Judicial Killing’ शब्द आता है और जिस पर 9 फरवरी का वह कार्यक्रम आयोजित किया गया था. बड़ी चतुराई से आप ये छुपा जाते हैं कि अब अदालत की अवमानना के आरोप में आपके प्यारे कन्हैया, उमर खालिद औऱ गिलानी को सुप्रीम कोर्ट में ये सफाई देनी होगी कि कैसे वह देश के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को धता बता कर उसके खिलाफ कार्यक्रम आयोजित कर सकते हैं.

खुद को महान दिखाने की कोशिश में आप बार बार ये बताते हैं कि बाकी चैनलों के जैसा कभी आपने भी किया होगा. उनकी तरह कभी आप भी आरुषि केस में जासूस बने होंग या कभी जज. सही है...लेकिन अच्छा होता Times now n India News के archive रखने के साथ साथ आप अपने भी Archive से कभी उन prime times  की क्लिप निकाल कर हमें सुना देते जहाँ आप कभी काँग्रेस के तो कभी वामियों के प्रवक्ता की तरह व्यवहार करते हैं.

अरे रवीश कुमार, अर्णब और दीपक में हिम्मत तो है स्टैंड लेने की जो कभी बीफ मामले पर, तोगड़िया और आदित्यनाथ के भड़काउ बयानों पर बीजेपी के विरोध में होता है तो कभी कांग्रेस और वामियों की दोहरी राजनीति पर उनके विरोध में या फिर अरविंद केजरीवाल की कथित स्वच्छ राजनीति की परतें उधेड़ने की. आप घुटनों को थपथपाइए और याद कीजिए कि आपने ऐसा आखिरी बार कब किया था? कब आखिरी बार आपके अंदर का बीजेपी विरोधी प्रवक्ता (पार्टी बदल सकती है) एंकर के खोल से बाहर निकला था ?

एक वक्त वो भी था जब 2008 में महज़ 12 हज़ार की पहली सैलरी से 8 हज़ार रुपए का टीवी और 2100 रुपए का टाटा स्काई मैने सिर्फ इसलिए खरीदा था ताकि रवीश की रिपोर्ट देख सकूं. केबल कनेक्शन लेकर 1900 रुपए बचाए जा सकते थे लेकिन वह नहीं बचे क्योंकि केबल पर NDTV नहीं आता था. एक समय ये है जब आखिरी बार NDTV कब देखा था मुझे घुटना थपथपाने पर भी शायद याद न आए.

जाइए उन्हे अपनी इस भर्राई आवाज़ से बरगलिए जो ये जानते न हों कि अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात करने वाले रवीश कुमार ने अपने एकाउँट से पश्यन्ती शुक्ला को 4 साल पहले सिर्फ इसलिए unfrnd कर दिया था क्योंकि कमेंट में जहाँ तारीफें सुनने की आदत रही हो वहाँ एक निम्न पत्रकार ने ये लिख दिया था कि- सर आपसे सहमत नहीं हूँ, आप चाहें तो तर्क प्रस्तुत करूँ

उन्हें अपने मासूम होनें की सफाई दीजिए जिनसे आपने 2010 की कुंभ की रिपोर्टिंग के दौरान मनसा देवी की पहाड़ी पर ये न कहा हो कि मै आधा बिहारी, आधा बंगाली हूँ और बंगाल का मतलब मुझपर वामपंथ का प्रभाव है. ये अलग बात है कि वामपंथ को आप सेक्युलर की श्रेणी में खड़ा करते हैं, और दक्षिणपंथियों को संघी कहकर बदनाम करते हैं. 

जाइए जाकर उन्हे उल्लू बनाइए जो ये जानते न हों कि आप कितने घाघ हैं




Wednesday, December 10, 2014

...तब क्या चैनल बैन कर देते?

2010 की बात है मै zee news में काम कर रही थी, हमारे यहाँ की ही एक एंकर/प्रोड्यूसर ने एक दूसरा चैनल ज्वाइन किया...कुछ दिन बाद पता चला कि रात को जब office की कैब से वो अपने घर जा रही थीं तब ड्राइवर ने कुछ जबर्दस्ती करने की कोशिश की.... वो कैब से Noida-GreaterNodia expressway पर कूद गई थीं...और कुछ बेहद बुरा होने से बच गया...वरना क्या उस चैनल पर बैन लग जाता, वो चैनल जो हमेशा TRP की रेस में Top5 में रहता है?आज इस घटना को 4 साल बाद इसलिए लिखा ताकि ये समझा जा सके कि Uber अकेली नहीं है, और न ही केवल App से बुक करने वाली company में ही ऐसा हो सकता है.मै बिल्कुल मानती हूँ कि Uber एक बदनाम कंपनी है, दुनिय के कई देशों में उस पर केस दर्ज हैं नीरलैंड के कई शहरों समेत कई जगह बैन है लेकिन सवाल ये है कि ये सवाल आज क्यों उठा? क्या रेप जैसी किसी घटना का इंतज़ार किया जा रहा था? इस बात पर चर्चा तब क्यों नहीं हुआ जब ये कंपनी दिल्ली में अपने पैर पसार रही थी? APP के ज़रिए कैब को न बुक करने की सलाह देने वाले तब कहाँ थे जब first time app download पर ये कंपनी 300 रुपए का डिस्काउंट दे रही थी? दरअसल हमारे देश की समस्या ये कि हम जब तक सोते हैं तब तक सोए ही रहते हैं और जागते हैं तो तुरंत समाधान चाहते हैं, ऐसे में खासतौर से जब 24*7 खबरिया चैनलों का ज़माना हो तो सरकार को ये डर लगना जायज़ है कि पत्रकारों के सवालों से कैसे बचेंगे. क्या बोलेंगे जब हमसे पूछा जाएगा कि इतने दिन उतने घंटे हो गए आपने क्या किया? तो भइया बैन लगा दो,जवाब देने को तो होगा कि कैब कंपनी पर बैन लगा दिया गया है, आगे की कार्रवाई चल रही है.कंपनी पर बैन लगाकर उसमें काम कर रहे हज़ारों कर्मचारियों के पेट पर लात मारने से कुछ नहीं बदलेगा, बदलना है तो अपना दिमाग़ अपना माहौल अपनी सोच बदलो.


Thursday, April 5, 2012

Dat's the Feeling of Mental Oneness....


U won my heart n kept mind aside
I lost my mind n put heart inside
U wr not a winner but won a little bit
I ws not a quitter but trying to quit
……………………………………….
Ur voice ws sounding so melodious
I felt like a lyric euphonious
It’s nothing there to hide anything
But I was trying to curtain something
………………………………………….
That’s the feeling of blissfulness
This certainly packed my unhappiness
U filled my all emptiness
I drenched wid immense shyness
…………………………………………..











That’s hard to say but I did
That’s not intentional but candid 
That’s not easy but happened
Now every chapter is open 
………………………………………………..
I did’t wanna open my eyes
As I ws seeing u inside 
I cud see myself in your eyes
I did’t wannna get outside 
…………………………………………………
Dts the feeling of mental oneness
It’s much bigger dan togetherness.


Monday, March 5, 2012

मैने जाना चुप रहकर तब रोना क्या होता है.....?


जब डबडबाई आंखें और गला रूंधा रहता है
कुछ खोने का दुख, जब कुछ पाने न देता है
मैने जाना चुप रहकर तब रोना क्या होता है...?

हिचकी आती मगर कोई आवाज़ नहीं जब आती है
तुम्हे भुलाने की हर कोशिश जब तन्हा रह जाती है
कभी नहीं कुछ याद करूगा, खुद निश्चय जब लेता है
फिर खुद से छुपकर ये दिल जब तुझको देखा करता है
मैने जाना चुप रहकर तब रोना क्या होता है.....?

जब ईश्वर की सत्ता पर कई प्रश्न स्वत: लग जाते हैं
मान कसौटी तुम्हे, भागवत गीता तौली जाती है
मंदिर मस्जिद हर गुरुद्वारे में जब मत्था टिकता है
फिर भी मन की व्याकुलता का कोई हल न मिलता है
मैने जाना चुप रहकर तब रोना क्या होता है.....?
  
लाख किताबें पढ लूं फिर भी बात न कोई भाती है
शेर शायरी सबमें तेरी ही प्रतिमा बन जाती है
अंदर की आवाजें इतनी हावी यूं हो जाती हैं
चीख पुकारों, सन्नाटों में एक ही जैसा लगता है
मैने जाना चुप रहकर तब रोना क्या होता है.....?

Friday, March 2, 2012

तो दिल करता है कुछ लिखूं.............


जब दिलो-दिमाग में उधेड़बुन चलती है
जब कई सवालों की कसक सी उठती है
जब घर की तो कभी अपने शहर की याद आती है
जब बचपन की यादें रूला जाती हैं

जब मां के सीने की तड़प उठती है
तो दिल करता है कुछ लिखूं.............

जब खुशी छुपाए से नहीं छुपती है
सुनने वालों की जब कमी सी लगती है
जब तन्हाई दिल को चीर जाती है
आंखें यूं ही नम हो जाती हैं
जब और रोने को जी चाहता है
तो दिल करता है कुछ लिखूं.............

जब अपने पराए बन जाते हैं
अविश्वास आसमान से ढाए जाते हैं
जब दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है
जब आंसुओं का बादल फट पड़ता है

जब खुद को भुलाने को जी चाहता है
तो दिल करता है कुछ लिखूं.........

Tuesday, February 28, 2012

फिर भी न जाने क्यों अंधेरे को कोसता है हर कोई..........


जब कोई आवाज़ नहीं सुनाई देती है मुझे
पर मेरी सांसो की आवाज़ भी आती है मुझे
जब घड़ी की टिक टिक भी कानों में चुभती है मेरे
जब गाड़ियों की आवाज़ भी खटकती है मुझे

शून्य में ताकती ये मेरी नज़रें
न जाने क्या खोजती हैं
अंधेरों से दोस्ती कर मेरी आंखे
बस यही पूछती हैं कि जब............

कभी रातों में ख्वाबों को
तो कभी ख्वाबों में रातों को
जब जीता है हर कोई
फिर भी न जाने क्यों अंधेरों को कोसता है हर कोई?








जब भावनाए बरबस शब्दों में ढल जाती हैं
जब कविता दिल से गाई जाती है
जब नए सृजन के बीज बोए जाते हैं
अपनी कल्पनाओं को मूर्त रूप दिए जाते हैं..
जब रोशनी आंखों में चुभने सी लगती है
रात जब सुबह से सुहानी लगती है

जब घूम घूम कर सन्नाटे को खोजता है हर कोई
फिर भी न जाने क्यों अंधेरे को कोसता है हर कोई..
फिर भी न जाने...............................................

Thursday, February 16, 2012

U left me All Alone.......

Emotions straight from the Heart, When I ws overwhelmed...

Whenever I thought seriously of u
Whenever I liked something in u
Whenever I find some different in u
Whenever I felt little love for u

U hit my heart! U broke my Soul
U left me all alone……………
U hit my life! U broke me whole
U left me all alone……………..










Why u did so?
What went wrong?
What was not right?
Why it happend all?

It’s all un-answered …..
Give me the reason…Give me the cause
Why…… Why….. Why……n………Why……
U left me all alone?????

Monday, February 6, 2012

It's not Possible to Forget u....

Some times emotions become the words itself....Last night it happened to me

It’s not possible to forget u,
Till the last breathe of my life
                    It’s not possible forget u
                    But to beat for my heart

It’s not possible to overcome
From the memories which u gave
                  Its not possible to carry on
                  When my life! u have gone













Its tooo not possible. not possible to forget
To forget that hug and ur touch
That touched my soul,

My Heart and Meeeee Whole

Though I hv  mistaken,  Mistaken  that  time
And hope u ll forgive for blunders of mine
                      Yessss I find it… its u I am in  Love
                       My Darling its u Who love me most

Now I know it very well I love U my life!
My Life! My Soul! My heart! u r my Goal
                  I believe I’ll get you one a day in my Life
                  And  wish  to  Almighty to  be  ur  Wife  
.......................................................

Wednesday, September 15, 2010

वो दिन बहुत ज़हरीले थे..........


मै बहुत छोटी थी शायद 6-7 साल की .. अम्मा ने कहा कि जाओ अंदर से माचिस ले आओ मोमबत्तियां जलानी है, थोड़ी देर में देखते देखते मेरे घर से लेकर मुहल्ले का एक एक घर रोशनी से जगमगा रहा था, कोई मटकी तो कोई थाली बजा रहा था, कोई ड्रम को बजा रहा था तो कोई अपने कपड़े उतार कर रामनाम के जयकारे लगा रहा था...पूरे मोहल्ले में हर कोई नाच गा रहा था,  खुशी में सब इतना मशगूल थे कि पुराने ख्यालातों को तिलांजलि देकर फुल वाल्यूम में स्पीकर चलाकर लड़के और लड़कियां सब एक साथ नाच रहे थे... पड़ोस वाली शुक्ला आंटी से लेकर मेरे पिताजी तक किसी के पास ये बताने के लिए वक्त नहीं था कि आखिर हम बिना दीवाली के ये दीवाली क्यों मना रहे हैं? क्यों पटाखें फोड़ रहे हैं क्यों मिठाईयां बांट रहे हैं ? मेरा बालमन व्याकुल था ये जानने के लिए कि अगर आज दीवाली है तो पिछले महीने क्या था, आज कोई त्योहार है तो हमने नए कपड़े क्यों नहीं पहने हैं? मेरा मन इस सवाल का जवाब पाने को भी बेताब था कि दीवाली पर तो तेल के दिए जलते हैं फिर आज मां ने और पड़ोस वाली मम्मी ने घर में घी के दिए क्यों जलाए हैं...कुछ समझ में नहीं आ रहा था और किसी के पास समझाने के लिए वक्त भी नहीं था..लिहाजा मैने भी उसी खुशी में खुश होना उचित समझा....
वो दिन 6 दिसंबर 1992 था, जब अयोध्या में मस्जिद गिराई गई थी,...अयोध्या मेरे शहर हरदोई से ज्यादा दूर नहीं था, मेरा परिवार आर्यसमाजी और परिवार समेत लगभग पूरा मोहल्ला घोर आरएसएस समर्थक था..,ये खुशी उसी विजय के उपलक्ष्य में मनाई गई थी. वो दिन बहुत जहरीले थे, मै थर्ड क्लास में पढ़ती थी लेकिन मेरी उम्र के मेरे साथी भी मुझे ये सलाह देने लगे थे कि सहबा (मेरी बचपन की पहली दोस्त) से दूर रहा करो क्योंकि वो मुस्लिम है...वो भी मुझसे कटी कटी सी रहने लगी थी, कुछ इस तरह मानो उसने कोई अपराध कर दिया है वो नजर नहीं मिला पाती थी मुझसे.....
आज एक बार फिर पान की दुकानों से लेकर नाई के खोखों तक 24 सितंबर की चर्चा गर्म है.....न्यूजरुम में भी इस मुद्दे की बात चलते ही कई लोगों को बिना किसी ग़लती के कन्नी काटकर जाते देखा जा सकता है..... भले ही आज कुछ विशेष तबकों को छोड़कर अयोध्या मुद्दे से सीधा नाता मध्यमवर्ग का भी न हो ,क्योंकि इऩ 18 सालों में हिंदुस्तान ने कई उतार चढ़ाव देखें है लेकिन इन मुद्दे पर विचारधारा में कुछ खास नही बदला,...अगर कुछ बदली है तो इस विचारधारा को एक्जिक्यूट करने की क्षमता.. इसीलिए मध्यम वर्ग स्थूल रुप से भले ही इससे जुड़ा न हो लेकिन सूक्ष्म शरीर अक्सर अयोध्या के चक्कर लगा आता है.....12 दिसंबर 92 का भाग्य 24 सितंबर 10 के हाथों में सुरक्षित है....फिर भी कोई ईश्वर से ये मना रहा है कि हे- भगवान जो मौका पिछली बार दीवाली के एक महीने बाद दिया था इस बार दीवाली से एक महीने पहले दे दो...तो कोई खुदा से ये मन्नत कर रहा है कि 15 दिन बाद फिर ईद लौट आए...... फैसला किसी के भी पक्ष में जाए और ये बाज़ी कोई भी जीते, डर तो बस ये सोचकर लगता है कि कहीं कोई फिर से मुझे मेरी सहबा से अलग करने की कोशिश न करे. 
(फैसले को टालने के लिए अपील की गई है 23 तारीख को इस पर फैसला होगा कि फैसला सुनाया जाए या सुरक्षित ही रखा जाए...लेकिन फैसला टालने से भी क्या होगा)

Thursday, September 9, 2010

'COMMENTS' करेंगे आप?

'COMMENTS' फेसबुक में इस 'टिप्पणी कालम' को देखकर मन में कई ख्याल आ रहे हैं, याद कीजिए एक ज़माना हुआ करता था जब बातों बातों से शुरु हुई बहस सिर्फ इसलिए गोली बारी तक पहुंच जाती थी कि 'आखिर तुमने मेरे ऊपर कमेंट कैसे किया'? 'बड़े गुस्से में लोग कहते थे बात को सीधे क्यों नहीं कहते हो कमेंट क्यों करते हो' ? और अब देखिए..........अब तो दुनिया ही कमेंट्स पर चलती है, हाल-चाल कमेंट्स से मिलता है, दिमाग़ी तरंगे भी फेसबुक में कमेंट्स के एंटीने में ही रिसीव होती हैं और दिल-ए-इज़हार भी स्टेटस के डब्बे में ही अपनी चुप्पी तोड़ता है, ताकि कमेंट्स मिल सकें.
हम सब 'COMMENT' की, अरे नहीं- नहीं 'COMMENTS' की प्रतीक्षा में रहते हैं..कुछ भी लिखते हैं तो बेसब्री से कमेंट्स का इंतज़ार करते हैं और करें भी क्यों ना आखिर यही तो है अपनी टीआरपी. ‘TRP’ बोले तो ‘PUBLICITY KA FUNDA’, फिर तो ये इंतज़ार जायज़ है ना भई...वैसे भी बड़ी मुश्किल से कमेंट ने अपनी सही पहचान पाई है, नहीं तो अब तक तो ये बेचारा अंग्रेजी का अच्छा ख़ासा शब्द अपनी पहचान ही तलाश रहा था, बड़े दुखी मन से कहता था कि ‘’आखिर मेरी ग़लती तो बताओ जो मेरे नाम के अर्थ का अनर्थ कर दिया तुम हिंग्रेजी बोलने वालों ने....मुझे शब्दों का विलेन (‘टिप्पणी’ से ‘Taunt’) बना दिया और मै बेजान कुछ कर भी न सका.... दूधों नहाए और पूते फले ये फेसबुक जो इसने मुझे मेरी पहचान वापस कर दी.. ऊपर वाला आप सब कमेंट करने वालों को भी सुखी रखे जिन्होने अपने ही स्वार्थ के लिए सही लेकिन एक नेक काम तो ज़रूर किया है ’’.......अरे अरे कहां चले, आज तो कमेंट करने से न चूको ,मेरे बारे में पहली बार किसी ने शायद इतना सोचा होगा....!!!

Friday, September 3, 2010

कोई जाए ज़रा ढूंढ के लाये न जाने कहां नींद खो गई

रात के 2 बजकर 57 मिनट हो चुकें हैं लेकिन आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं है. न ये किसी से मिलने की खुशी है और न हि किसी से बिछड़ने का गम. ये न किसी के प्यार का वो जुनून है जो सोने नहीं देता और न हि किसी की बेवफाई की कसक जिसके काटे से अब रातें नहीं कटती. सच बताऊं तो ये आंखों में गुज़रती रातें एक आदत का परिणाम हैं जानते हैं कौन..नहीं पता अरे वही जिसके बिना काटे नहीं कटते दिन ये रात, न सुबह होती है न शाम होती है, जिंदगी यूंही तमाम होती है... नहीं समझे ना, चलिए हम बता ही देते हैं, अरे वही अपना इंटरनेटजिसकी गिरफ्त में आज पूरा विश्व है, और पिछले कुछ दिनों से मै भी, अभी भी फेसबुक पर 22 लोग आनलाइन हैं यानि मेरे जैसे मेरे 21 दोस्त और हैं..आपको पता है मै और मेरा इंटरनेट एक दूसरे के पूरक बन गए हैं इन दिनों..पूरक बोले तो COMPLEMENTRY TO EACHOTHER. सुख दुख के साथी. 
बड़ी अजब दुनिया है भई इंटरनेट की, नए रिश्ते चैट करते करते यहीं पुराने हो जाते हैं और पुराने यहां नए, फेसबुक और आरकुट हर महीने नए एप्लीकेशन्स के साथ एक नए कलेवर में एक दूसरे को मुंह चिढ़ाते हैं, और उन एप्लीकेशन्स को एप्लाई करने की कोशिश में रात हमें मुंह चिढ़ाती हुई निकल जाती है. सुबह आती है उम्मीद जगती है कि कल की रात आज जैसी नहीं होगी, हम सोचते हैं कि कल से टाइम पर सोना है लेकिन ये मुआं इंटरनेट, ये सोने दे तब ना..ये तो हाथ धोके ही पीछे पड़ गया रे. मेरा दिल तो बस एक ही गाना गुनगुनाता है आजकल...... कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन, बीते हुए दिन वो मेरे प्यारे प्यारे दिन...!!!!!!!
(दुनियाभर में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले लोगों का आँकड़ा 2013 तक बढ़कर 2.2 अरब हो जाने की उम्मीद है। तकनीक और बाजार अनुसंधान फर्म फॉरेस्टर रिसर्च की रपट के अनुसार 2013 तक दुनिया में इंटरनेट इस्तेमालकर्ताओं की संख्या 45 प्रतिशत बढ़कर 2.2 अरब हो जाएगी। इस बढ़ोतरी में सबसे ज्यादा योगदान एशिया का रहेगा। रिपोर्ट के मुताबिक 2013 तक भारत इंटरनेट यूजर्स के मामले में चीन और अमेरिका के बाद तीसरे स्थान पर होगा। 2008 में दुनिया में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या 1.5 अरब थी।)

Wednesday, July 14, 2010

8 घंटे टीवी, 10 घंटे नौकरी तो बचा क्या .....?.......

जितना टीवी देखो चैनल्स की टीआरपी उतनी बढती है, सीरियल्स की उतनी कमाई होती है, नए कलाकार रातोंरात स्टार बन जाते हैं और हमारी किस्मत के सितारे आसमान से जमीन पर .........सानिया मिर्जा की शादी में पूरा दिन बर्बाद किया तो क्या मिला या धोनी की शादी की तस्वीरें देखने के लिए टीवी से चिपके रहे तो कौन सी नौकरी लग गई...नच के दिखा में लड़कियां जीती तो देश भर की लड़कियो को क्या मिल गया या फिर आइफा एवार्ड्स में हमने रात बर्बाद कर दी तो  क्या उसके एवज़ में कोई पुरस्कार मिल गया..... हम तो ये भी नहीं सोचते कि जिन रिश्तों के टूटने बिखरने पर हम साथ में आंसू बहाते हैं वो पर्दे के पीछे उन आंसुओं के हिट होने का जश्न मनाते हैं...मैच में हुई जिस हार के बाद हम खाना भी नहीं खा पाते उन हारने वालों को तो उस हार का भी पैसा मिलता है  ..........
मै अक्सर महसूस करती हूं कि जिस दिन मै टीवी नहीं देखती मुझे क्या फायदा होता है...कई पुराने दोस्तों से फोन पर बात, किताबों के पन्नों से कुछ न कुछ दिमाग में कैद, कम से कम पांच अखबारो की पढाई , कई ढेर सारी साइट्स सर्फिंग और अपने बारे में सोचने का मौका..उसके बाद भी वक्त बच जाता है....लोग अपने बच्चों से कहते हैं कि टीवी मत देखो लेकिन अगर टीवी न देखें तो करें क्या, क्या मनोरंजन का कोई साधन उसके विकल्प के तौर पर मौजूद है..क्या जिस तरह नए घर में जाते ही हम टीवी के लिए एक नया कोना तलाशते हैं वैसे ही जगह किताबों की शेल्फ के लिए ढूंढते हैं जवाब मै नहीं आप लोग देंगे....क्योंकि ये सवाल केवल हमारा ही नहीं है हमारी अगली पीढ़ी का भी है जो हमसे ये पूछती है कि टीवी नहीं तो और क्या....

Monday, July 5, 2010

चलेंगे हम गुरुवर बस तुम्हारे ही इशारों पर..

इस देश की हर नारी स्वामी दयानंद की ऋणी है क्योंकि उन्होने नारी को घर की चहारदीवारी से निकालकर पाठशाला की दहलीज़ तक पहुंचाया लेकिन हम कृतज्ञ हैं उस दैवीय सत्ता के जिसने न केवल गायत्री मंत्र को जन जन तक पहुंचाया बल्कि रुढ़ियों से बाहर निकालकर उसे नारी के भी कंठ और होंठो तक पहुंचाया. बहुत कम ही लोग ये जानते हैं कि गुरुदेव के 24 लाख पुरश्चरण अनुष्ठान को करने से पहले गायत्री मंत्र का उच्चारण नारियों के लिए करना वर्जित था यहां तक कि ऊंची आवाज़ में भी इसको उच्चरित करना पुरुषों के लिए भी मना था.. एक झलक है ये उसी महान दैवीय सत्ता की जिसका परिवार पूरे विश्व में अखिल विश्व गायत्री परिवार के नाम से जाना जाता है, जिसकी 80 देशों में शाखाएं हैं, भारत में 4000 से भी ज्यादा सेंटर्स हैं और 5 करोड़ से भी ज्यादा लोग जिसका हिस्सा हैं.....आइए दर्शन करें हमारे गुरुदेव पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य के........http://www.youtube.com/watch?v=6r4ovVGfXkY&feature=related

Thursday, June 24, 2010

.क्या कड़ा कानून रोक पायेगा ‘ऑनर किलिंग’ को


कोई भाषण नहीं देना चाहती, कोई ज्ञान बांटने की इच्छा भी नहीं है लेकिन एक सवाल है मन में जिसका जवाब ढूंढ रही हूं...दिल्ली में दिल दहला देने वाली ऑनर किलिंग हुई......भाईयों ने बहनों की हत्या कर दी बहुत कुछ कहा गया..रक्षाबंधन का खून, हॉरर किलर, खून का खून, कलयुगी भाई और न जाने क्या क्या, हत्या इतनी निर्ममता से की कि ये उपमाएं तो मिलनी ही थी...20 जून को अंकित, नकुल और मंदीप ने अपनी बहनों का खून कर दिया क्योंकि उन्होने रिवाजों के खिलाफ जाकर गैर जातीय विवाह किया, तमाम बातें हुईं कड़ा कानून बनाने की, हत्यारों को मौत की सज़ा दिलवाने की ......हत्यारे पुलिस से बचकर भागते रहे और मै समझने की कोशिश करती रही कि आखिर कैसे किसी भाई के सिर पर अपनी ही बहन का खून करने का जुनून कुछ इस तरह सवार हो गया कि वो ये भूल गया कि मौत का ये तांडव रचने के बाद उसे सारी जिंदगी सलाखों के पीछे बितानी पड़ेगी, समाज में जिस बदनामी का बदला लेने के लिए उन्होने ये खून किया उस समाज में इज्जत से जीने का एक भी मौका उन्हे कानून शायद कभी नहीं देगा...
  अंकित मनदीप और नकुल आज पुलिस की गिरफ्त में हैं जहां से शायद कभी बाहर नहीं निकल पायेंगे सरकार ने कड़ा कानून बनाने की बात भी कही, महिला आयोग ने कहा कि सज़ा इतनी कड़ी हो ताकि दुबारा किसी की हिम्मत इज्जत की खातिर खून करने की न हो लेकिन मेरे मन में एक सवाल है क्या कोई भी कड़ा कानून हमें इस दकियानूसी विचारधारा से निजात दिला पायेगा..क्योकिं घंटो टीवी पर खड़े होकर भाइयों के इस कुकृत्य को कोसने वाले भी पीठ पीछे यही कहते फिरते हैं कि जो हुआ ठीक ही हुआ, जिसकी बहन ने भाग कर शादी कर ली हो उससे पूछो लेकिन उससे मत पूछो जिन्होने मजबूर किया भागने के लिए...........कानून अगर हर चीज़ का हल होता तो शायद दहेज जैसी कुप्रथा तो कब की खत्म हो गई होती क्योंकि उससे कड़ी सज़ा तो हत्या को छोड़कर शायद ही किसी अपराध के लिए कानून मुकर्रर करता हो...
मै ये नहीं कहूंगी कि सोच बदलने की जरुरत है क्योंकि शायद ये एक उपदेश सा लगेगा लेकिन आप लोंगो के पास कोई जवाब हो तो जरुर दीजिएगा कि आखिर जरुरत है किस बात की और जिस बात की जरुरत है वो पूरी कैसे की जायेगी क्योंकि कहने से न तो सोच बदलेगी, न ही कानून से परंपरायें और न ही परंपराओं के डर से प्रेम और जहां प्रेम होगा उसे विवाह के पवित्र बंधन में बंधने से कौन रोकेगा........?

Thursday, May 13, 2010

.......न जाने तुझसे मैने क्या वो था ऐसा पाया


                      किसी सुनहरे स्वप्न मान जो तुम्हे भूल हम बैठे थे
                      जानबूझ हम  गैर   बनाकर  तुम्हे गंवां भी  बैठे  थे
                      किंतु किसी की बात ह्र्दय में आज चुभी कुछ ऐसी है
                      बीत चला जो समय वही फिर टीस  ह्रदय में  बसी है

                     हरपल हरक्षण इंतजार में एक बरस हो आया ,
             आज फिर सावन घर आया और फिर दिल ये भर आया



                   बात  भले  ही  बीत   गई   हो, बीत   गई    वो   बात   न   है
                   ये वो   मन  की    सच्चाई   है,  जो बीते   से  भी   बीते    न
                   आंख खुले  से स्वप्न  हैं  टूटे ,पर ये   तो    था    सपना   न
                   तुम भी ये थे हम भी ये थे मिल देखा जिसने सपना था

           वही स्वप्न अब सत्य    रुप में फिर   परिचित   बन   आया है
           कैसे तुमको   बतलायें हम,   मन   आतुर   क्यों    हो    आया     है

                  
बहुत रास्ते हम भी चल चुके कई मोड़ों से तुम भी गुजरे
                  हाय   भाग्य का लेखा देखो   किसी मोड़   पर हम ना   झगड़े
                  जब  जब कोई   पास था   आया  हम    खुदसे  ही दूर हो   गए
                  किंतु   नियंता  की    नियति    ये    तेरे  उतना पास   हो     गए

           एक बरस में भी तेरे बिन कोई न घर पाया
                           न जाने तुझसे मैने क्या वो था ऐसा पाया......